\ Polity Class Notes In Hindi - Deeptiman Academy

Polity Class Notes In Hindi

संविधान संशोधन को लेकर संसद और न्यायपालिका  के बीच ऐतिहासिक विवादः 

  • शंकरी प्रसाद (1951) और सज्जन सिंह विवाद (1963)- न्यायपालिका ने यह मान लिया था कि संसद संविधान के सभी लोगों में संशोधन कर सकती है लेकिन पहली बार- 
  • गोलकनाथ वाद (1966)- में न्यायपालिका ने कहा कि संसद मौलिक अधिकारों वाले भाग में संशोधन नहीं कर सकती क्योंकि ये जीवन के लिए आधारभूत अधिकार है यदि इनमें संशोधन करना है तो नई संविधान सभा बुलानी पड़ेगी।
      इस तरह गोलकनाथ वाद से विवाद की शुरूआत हो जाती है गोलकनाथ वाद के प्रभाव को समाप्त करने के लिए- 
  • संसद 24वीं संशोधन कर देती है इसके द्वारा अनु. 368, (3) (4) जोड़कर यह स्पष्ट रूप से लिख दिया जाता है कि इस अनु. में संशोधन की प्रक्रिया के साथ संसद को संशोधनक की शक्ति भी दी गयी है इसलिए संसद संविधान के सभी भागों में संशोधन कर सकती है आगे चलकर न कर सकती है आगे चलकर 24वें संशोधन को- 
  • केशवानंद भारतीय वाद (केरल-1973)- वाद में चुनौती दी जाती है न्यायालय 24वें संशोधन का वैध घोषित करते हुए कहता है कि- संसद संविधान के सभी भागों में संशोधन कर सकती है चाहे वह मौलिक अधिकार ही क्यों न ही लेकिन- संविधान के मौलिक ढाँचे में संशोधन नहीं कर सकती।
      मौलिक या आधार भूत ढाँचा क्या है इसे संविधान में कही भी लिखा नहीं गया है इसकी व्याख्या न्यायालय अपने विवेक से करेगा। न्यायालय में निम्नलिखित को मौलिक ढाँचा घोषित किया हैं- 
  • संसदीय सरकार 
  • कानून का शासन 
  • पंथ निरपेक्षता 
  • न्यायिक पुनर्विलोकन 
  • अनं. 32

जैसे- पंथनिरपेक्षता को मौलिक ढाँचा घोषित किया गया है अतः यदि भारत सरकार भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित करने के लिए कोई संविधान संशोधन करती है तो न्यायालय इसे मौलिक ढाँचे का उलंघन मानेगा और इसे विधि शून्यु घोषित कर देगा अतः भारत को हिन्दू भारत को राष्ट्र घोषित करने के लिए नया संविधान बनाना पड़ेगा। 

     इस तरह केशवानंद भारतीवाद में न्यायालय ने आधार भूत ढाँचे का सिद्धांत प्रतिपादित करके अपनी न्यायिक पुनर्विलोक शक्ति के लिए एक बड़ा स्रोत ढूँढ लिया। अब न्यायालय संसद के किसी संशोधन कानून का इस आधार पर न्यायिक पुनर्विलोकन करके विधि शून्य घोषित कर सकता है कि यह कानू आधार भूत ढाँचे का उलंघन करता है।  

    आगे चलकर केशवानंद भारती वाद को प्रभाव को समाप्त करने के लिए 42वें संविधान संशोधन द्वारा- अनु. 368 (3) (4) (5) जोड़ दिया जाता है और इसमें  स्पष्ट रूप से लिख दिया जाता है कि संसद आधार भूत ढाँचे सहित संविधान के सभी भागों में संशोधन कर सकती है इस 42वें संशोधन को- 

    मिनर्वा मिल्स (1980) वाद में चुनौती दी जाती है न्यायालय (4) (5) को रद्द करके केशवानंद भारती वाली स्थिति को लौटा देता है अर्थात् संसद आधार भूत ढाँचे को छोड़कर संविधान के सभी भागों में संशोधन कर सकती है। 

     इस तरह इस विवाद से यह सिद्ध हो जाता है कि भारत में न तो संसद सर्वोच्च है और न न्यायपालिका, सर्वोच्च संविधान है संविधान की सर्वोच्चता की रक्षा की जिम्मेदारी न्यायपालिका पर है। 

 

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